दरअसल, 1990 के दशक में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड निचले स्तर पर था. भंडार इतना गिर गया था कि भारत के पास केवल 14 दिन के आयात के लिए ही विदेशी मुद्रा बची थी. हालात ये हो गए थे कि भारत सरकार ने बैंक ऑफ इंग्लैंड को 21 टन सोना भेजा, ताकि इसके बदले में विदेशी डॉलर मिल सके. इस डॉलर के जरिए सरकार को आयात किए गए सामानों का भुगतान करना था. आपको यहां बता दें कि भारत समेत दुनियाभर में अधिकतर कारोबार डॉलर में ही होता है. ऐसे में ये जरूरी बन जाता है कि विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की उपलब्धता ज्यादा हो.
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 7.5 अरब डॉलर घटकर 572.7 अरब डॉलर पर आया, पिछले 20 महीनों का सबसे निचला स्तर
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार (India's Forex Reserves) घटकर अपने 20 महीने के निचले स्तर पर आ गया है। इसका कारण भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की तरफ से रुपये की गिरावट को रोकने के लिए बाजार में बार बार किया गया हस्तक्षेप है। ब्लूमबर्ग ने एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी। एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत 80 रुपये तक पहुंच चुकी है और RBI इसमें और गिरावट आने से रोकने की कोशिश कर रहा है।
RBI ने शुक्रवार को जारी आंकड़े में बताया कि 15 जुलाई को समाप्त हुए हफ्ते में देश का विदेशी मुद्रा भंडार 7.5 अरब डॉलर घटकर 572.7 अरब डॉलर पर आ गया। यह 6 नवंबर 2020 के बाद का इसका सबसे निचला स्तर है। RBI के आंकड़ों के अनुसार इससे पहले, आठ जुलाई को समाप्त सप्ताह के दौरान, विदेशी मुद्रा भंडार 8.062 अरब डॉलर घटकर 580.252 अरब डॉलर रह गया था।
रुपये के कमजोर या मजबूत होने का मतलब क्या है?
रुपया कमजोर या मजबूत क्यों होता है?
रुपये की कीमत पूरी तरह इसकी मांग एवं आपूर्ति पर निर्भर करती है. इस पर आयात एवं निर्यात का भी असर पड़ता है. दरअसल हर देश के पास दूसरे देशों की मुद्रा का भंडार होता है, जिससे वे लेनदेन यानी सौदा (आयात-निर्यात) करते हैं. इसे विदेशी मुद्रा भंडार कहते हैं. समय-समय पर इसके आंकड़े रिजर्व बैंक की तरफ से जारी होते हैं.
विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा पर असर पड़ता है. अमेरिकी डॉलर को वैश्विक करेंसी का रुतबा हासिल है. इसका मतलब है कि निर्यात की जाने वाली ज्यादातर चीजों का मूल्य डॉलर में चुकाया जाता है. यही वजह है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत से पता चलता है कि भारतीय मुद्रा मजबूत है या कमजोर.
30 साल पहले विदेशी मुद्रा भंडार पर था विदेशी मुद्रा बाजार इतना तरल क्यों है संकट, भारत को ऐसे मिला 500 अरब डॉलर का मुकाम
- नई दिल्ली,
- 13 जून 2020,
- (अपडेटेड 13 जून 2020, 1:28 PM IST)
- भारत का विदेशी मुद्रा भंडार चीन और जापान के बाद सबसे ज्यादा
- भारत को इस मुकाम पर पहुंचने में करीब 30 साल का समय लगा
हर हफ्ते की तरह इस बार भी केंद्रीय रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा भंडार के आंकड़े जारी किए हैं. इस बार के आंकड़े बेहद खास हैं. दरअसल, पहली बार भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 500 अरब डॉलर के पार पहुंच गया है. इसी के साथ भारत का विदेशी मुद्रा भंडार चीन और जापान के बाद सबसे ज्यादा हो गया है. भारत को इस मुकाम पर पहुंचने में करीब 30 साल का समय लगा है.
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उदाहरण के तौर पर नेपाल ने भारत के साथ फिक्सड पेग एक्सचेंज रेट अपनाया है. इसलिए एक भारतीय रुपये की कीमत नेपाल में 1.6 नेपाली रुपये होती है. नेपाल के अलावा मिडिल ईस्ट के कई देशों ने भी फिक्स्ड एक्सचेंज रेट अपनाया है.
डॉलर दुनिया की सबसे बड़ी करेंसी है. दुनियाभर में सबसे ज्यादा कारोबार डॉलर में ही होता है. हम जो सामान विदेश से मंगवाते हैं उसके बदले हमें डॉलर देना पड़ता है और जब हम बेचते हैं तो हमें डॉलर मिलता है. अभी जो हालात हैं उसमें हम इम्पोर्ट ज्यादा कर रहे हैं और एक्सपोर्ट कम कर रहे हैं. जिसकी वजह से हम ज्यादा डॉलर दूसरे देशों को दे रहे हैं और हमें कम डॉलर मिल रहा है. आसान भाषा में कहें तो दुनिया को हम सामान कम बेच रहे हैं और विदेशी मुद्रा बाजार इतना तरल क्यों है खरीद ज्यादा रहे हैं.
फॉरेन एक्सचेंज मार्केट क्या होता है?
आसान भाषा में कहें तो फॉरेन एक्सचेंज एक अंतरराष्ट्रीय बाजार है जहां दुनियाभर की मुद्राएं खरीदी और बेची जाती हैं. यह बाजार डिसेंट्रलाइज्ड होता है. यहां एक निश्चित रेट पर एक करेंसी के बदले दूसरी करेंसी खरीदी या बेची जाती है. दोनों करेंसी जिस भाव पर खरीदी-बेची जाती है उसे ही एक्सचेंज रेट कहते हैं. यह एक्सचेंज रेट मांग और आपूर्ति के सिंद्धांत के हिसाब से घटता-बढ़ता रहा है.
करेंसी का डिप्रीशीएशन तब होता है जब फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट पर करेंसी की कीमत घटती है. करेंसी का डिवैल्यूऐशन तब होता है जब कोई देश जान बूझकर अपने देश की करेंसी की कीमत को घटाता है. जिसे मुद्रा का अवमूल्यन भी कहा जाता है. उदाहरण के तौर पर चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया. साल 2015 में People’s Bank of China (PBOC) ने अपनी मुद्रा चीनी युआन रेनमिंबी (CNY) की कीमत घटाई.<
मुद्रा का अवमूल्यन क्यों किया जाता है?
करेंसी की कीमत घटाने से आप विदेश में ज्यादा सामान बेच पाते हैं. यानी आपका एक्सपोर्ट बढ़ता है. जब एक्सपोर्ट बढ़ेगा तो विदेशी मुद्रा ज्यादा आएगी. आसान भाषा में समझ सकते हैं कि एक किलो चीनी का दाम अगर 40 रुपये हैं तो पहले एक डॉलर में 75 रुपये थे तो अब 80 रुपये हैं. यानी अब आप एक डॉलर में पूरे दो किलो चीनी खरीद सकते हैं. यानी रुपये की कीमत गिरने से विदेशियों को भारत में बना सामान सस्ता पड़ेगा जिससे एक्सपोर्ट बढ़ेगा और देश में विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़ेगा.
डॉलर की कीमत सिर्फ रुपये के मुकाबले ही नहीं बढ़ रही है. डॉलर की कीमत दुनियाभर की सभी करेंसी के मुकाबले बढ़ी है. अगर आप दुनिया के टॉप अर्थव्यवस्था वाले देशों से तुलना करेंगे तो देखेंगे कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत उतनी नहीं गिरी है जितनी बाकी देशों की गिरी है.
यूरो डॉलर के मुकाबले पिछले 20 साल के न्यूनतम स्तर पर है. कुछ दिनों पहले एक यूरो की कीमत लगभग एक डॉलर हो गई थी. जो कि 2009 के आसपास 1.5 डॉलर थी. साल 2022 के पहले 6 महीने में ही यूरो की कीमत डॉलर के मुकाबले 11 फीसदी, येन की कीमत 19 फीसदी और पाउंड की कीमत 13 फीसदी गिरी है. इसी समय के विदेशी मुद्रा बाजार इतना तरल क्यों है भारतीय रुपये में करीब 6 फीसदी की गिरावट आई है. यानी भारतीय रुपया यूरो, पाउंड और येन के मुकाबले कम गिरा है.
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